शनिवार, 31 जुलाई 2010

कैसे समझूँ


कैसे समझूँ चाँद तुम्हे?
महसूस होने लगती है
चकोर की निगाहों की थकन

कैसे समझूँ गुलाब तुम्हे?
लहूलुहान हो जाती है
सोच
अपनी ही

कैसे समझूँ उन्मुक्त पवन तुम्हे?
पँख
कट ही जाते हैं
मन के

कैसे समझूं ख़ामोशी तुम्हे?
व़क्त
ठहर सा जाना चाहेगा
तुम्हारी आँखों को
पढ़ने की कोशिश में

कैसे समझूँ शब्द तुम्हे?
जो चुक जाते हैं
अक्सर

अब बताओ तुम्ही
क्या और कैसे
समझूँ तुम्हे?

4 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं।बधाई।

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

समझें मत किसी को
समझने के फेर में
पड़ें भी मत
अड़ें भी मत
सिर्फ महसूसें
जैसे मैं महसूस रहा हूं।

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा…

sundar likha hai... vaah kaise bataaon.. shubhkamnaye

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

विवेक भाई आपके अंतर्मन की बातों ने प्रभावित किया|