शनिवार, 31 जुलाई 2010

कैसे समझूँ


कैसे समझूँ चाँद तुम्हे?
महसूस होने लगती है
चकोर की निगाहों की थकन

कैसे समझूँ गुलाब तुम्हे?
लहूलुहान हो जाती है
सोच
अपनी ही

कैसे समझूँ उन्मुक्त पवन तुम्हे?
पँख
कट ही जाते हैं
मन के

कैसे समझूं ख़ामोशी तुम्हे?
व़क्त
ठहर सा जाना चाहेगा
तुम्हारी आँखों को
पढ़ने की कोशिश में

कैसे समझूँ शब्द तुम्हे?
जो चुक जाते हैं
अक्सर

अब बताओ तुम्ही
क्या और कैसे
समझूँ तुम्हे?

प्रेम कविता

ऐ सनम  तुम मुझे बतलाओ  
तुम्हारे इन रेशमी बालों  को
अपने इन  हाथों  से सहलाऊं
या घर जाकर इन्हीं हाथों  से
बूढ़ी मां कै पैर दबाऊं 
ऐ सनम तुम मुझे बतलाओ
कल चांदनी रात में लिखी  थी जो
तुम पर वो कविता सुनाऊं
या गरीबों की बस्ती में  जाकर
उन्हें कविता जैसी चीजों  को
बेअटक पढ़ना सिखाऊं
ऐ सनम  तुम मुझे बतलाओ
चांद तोड़कर लाने जैसी

निरर्थक बातों से
कहो तो बार-बार तुम्हें  बहलाऊं
या राष्ट्र विकसित  कैसे बने 
इस प्रश्न पर समय खपाऊं
ऐ सनम तुम मुझे बतलाओ
डर लगता है तुम्हारा प्रेम  मुझे
परिवार, समाज, राष्ट्र से विमुख न कर दे
इनके प्रति जो कर्तव्य  है मेरा
उसमें तुम बाधा न बन  जाओ
ऐ सनम मुझे बतलाओ
ऐ सनम तुम मुझे बतलाओ 

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

अभी न सीखो प्यार

नमस्कार दोस्तों ! आज मैं आपके सामने एक प्रेम कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ ! आशा करता हूँ आप लोगों को पसंद आयेगी !

यह पान फूल सा मृदुल बदन
बच्चों कि जिद सा अल्हड मन
तुम अभी सुकोमल,बहुत सुकोमल,अभी सीखो प्यार !

कुंजों की छाया मैं झिलमिल
झरते हैं चांदी के निर्झर
निर्झर से उठते बुदबुद पर
नाचा करती परियां हिलमिल
उन परियों से भी कहीं अधिक
हल्का फुल्का लहराता तन
तुम अभी सुकोमल, बहुत सुकोमल ,अभी ना सीखो प्यार

तुम जा सकतीं नभ पार अभी
लेकर बादल की मृदुल तरी
बिजुरी की नव चमचम चुनरी
से कर सकतीं श्रृंगार अभी
क्यों बाँध रही हो सीमाओं में
यह धुप सदृश खिलता यौवन ?
तुम अभी सुकोमल,बहुत सुकोमल ,अभी ना सीखो प्यार !

अब तक तो छाया है खुमार
रेशम की सलज निगाहों पर
हैं अब तक कांपे नहीं अधर
पाकर अधरों का मृदुल भार
सपनों की आदी ये पलकें
कैसे सह पाएंगी चुम्बन ?

तुम अभी सुकोमल,बहुत सुकोमल ,अभी ना सीखो प्यार !
यह पान फूल सा मृदुल बदन
बच्चों सी जिद सा अल्हड मन !

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

शुभ दीपावली

नमस्कार दोस्तों ! भई बहुत समय हुआ कुछ लिखे हुए तो मन में एक कविता याद आयी दिवाली परभई अब महंगाई के इस समय में दिवाली तो सिर्फ़ अमीर लोगों का ही त्यौहार रह गया है एक तरह से , लेकिन कोई बात नहीं दोस्तों मेरी कविता सुनिए और प्रसंचित रहिये। पेश है मेरी कविता

सभी जगह ही धूम मची है
क्या ही छठा निराली है,
आओ मिलकर सभी मनाएं
आयी शुभ दिवाली है

सजी हुई हैं सभी दुकानें
सजे हुए हैं सब घर-द्वार
कूचे गलियां सभी सजे हैं
सजे हुए हैं सब बाज़ार

भीने भीने महक रहे हैं
टंगे हुए फूलों के हार
झिलमिल करते रंग- बिरंगे
बल्बों के हैं बन्दनवार।

कहीं चमकती फुलझरियां हैं
चलते कहीं पटाके हैं
कहीं छूटते बम के गोले
कैसे धूम धड़ाके हैं

आलू ,पूडी,खीर , कचोडी
मेवा ,फल ,मीठे पकवान
खीलें और खिलोने खाते
घर पर आए सब मेहमान

दोस्तों आप सभी को मेरी ओर से दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएंशुभ दीपावली

मंगलवार, 29 सितंबर 2009

दिल्ली की सैर

नमस्कार दोस्तों !क्या आपने कभी सोचा है कि जो लोग दूर दराज के गावों से दिल्ली शहर में आते हैं तो उन्हें कैसा लगता है ?मेरी कविता भी कुछ ऐसी ही है |

लल्लू से बोली लल्ली
मैं जाऊंगी कल दिल्ली
हो !क्या कहने मेमसाब
तुम भी हो गई शेखचिल्ली

खिसियाकर बोल पड़ा लल्लू
लल्ली की उड़ा रहा खिल्ली
लेकिन लल्ली ने ठान लिया
वह चल ,भागी,पहुँची दिल्ली

दिल्ली के भीड़ भड़क्के में
ऐसी घबरायी ,चकराई
किस ओर चलूँ,किस ओर भगूं
यह लल्ली समझ पाई

इससे तो गाँव भला मेरा
थी सोच रही मन में लल्ली
रहती हूँ जहाँ मज़े से में
मुझे चाहिए यह दिल्ली

थी थकी, मगर वह लौट पड़ी
भूखी प्यासी सहमी लल्ली
लल्लू जो राह देखता था
बोला-क्या हो आई दिल्ली?

कैसी लगी कविता दोस्तों? नमस्कार!

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

बेशर्म मेहमान

नमस्कार दोस्तों! क्या आपका किसी ऐसे मेहमान से पाला पड़ा है ,जिसने आपको परेशान कर दिया हो ?मेरी कविता भी ऐसे ही मेहमान पर केंद्रित है |


होते हैं कुछ ऐसे लोग
जिन्हें होता प्यारा मान
मानो या भी मानो
बन जाते फिर भी मेहमान

देल्ली मैं रहते रहते
विवेकजी थे बहुत उदास
सैर सपाटा करने को वह
पहुंचे लखनऊ मित्र के पास

मित्र गोलू मिले प्रेम से
खातिर मान हुआ डटकर
विवेकजी रम गए वहीं पर
बिसरी देल्ली ,भूले घर

दिन, सप्ताह, महीने बीते
विवेकजी रुक गए वहीं
मित्र गोलू ने लज्जा से
जाने को भी कहा नहीं

एक दिन साहस करके वह
विवेकजी से बोले
कुछ आज देल्ली की बात चले
घर वालों की चर्चा हो ले

विवेक! बिन तुम्हारे तो
घरवाले सभी दुखी होंगे
दिन-रात तुम्हारे आने की
वे राह सदा तकते होंगे

विवेकजी बोल पड़े झट से
मैं भी तो इसी सोच मैं हूँ
करता हूँ अभी कॉल उनको
जिससे सबको ही बुलवा लूँ |

कैसी लगी कविता दोस्तों ?नमस्कार!

मेरे हाथ बंधे हैं - मंगत राम सिंघल ,श्रम मंत्री ,देल्ली

नमस्कार दोस्तों ! जैसा कि आप जानते हैं ,देल्ली में निर्माण कार्य जोरों पर है |जो मजदूर इन कार्यों में लगे हैं क्या किसी ने सोचा है ,वे किन परिस्थितियों में काम करते हैं ?कितने घंटे काम करते हैं? ,और सबसे बड़ी बात कितनी पगार पर काम करते हैं ?कानून कहता है कि आठ घंटे कि मजदूरी के लिए मजदूर को कम से कम १५२ रुपये कि राषी तय है, जबकि इन मजदूरों को जो कि काम की तलाश में दूर दराज से आते हैं ,उन्हें १० से १२ घंटे काम करने के लिए मिलते हैं सिर्फ़ ९० से १०० रुपये |इस पर हमारे श्रम मंत्री ,श्री मंगत राम सिंघल जी का कहना है कि मेरे हाथ बंधे हैं ,मैं कुछ नहीं कर सकता|इन गरीब और अशिक्षित मजदूरों कि लाचारी तो समझ मैं आती है ,पर मंत्रीजी और अधिकारियों कि मजबूरी मेरी समझ से बाहर है |क्या इस समस्सया का कोई समाधान हो सकता है ?जरूर बतायेअगा | नमस्कार!